Monday

नाउम्मीद

तेरे ग़मों की डली बनाकर ज़ुबाँ पे रख ली है देखो मैंने
वो क़तरा क़तरा पिघल रही है, मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

इन आँखों की खामोश सिलवटों में, लबों की शर्माई करवटों में
रुकी हुयी एक आह दिल में, ज़हर मैं कितना जा पी रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

वो दिन जो मेरे करीब आकर, नज़र मिलाकर था तूने देखा
ये दिन जो यादें सिसक रहीं हैं, मैं फिर भी सपना वो सी रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

झुलस चुकी इस शाख पे अब मायूस ख्वाबों की राख बस है
तड़पती साँसे अनसुनी सी, कहानी चुप अनकही रहा हूं
... मैं क़तरा क़तरा ही जी रहा हूँ

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कविता की पहली दो पंक्तियाँ गुलज़ार की हैं । बाकी मेरा छोटा सा प्रयास ।

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Like a particularly notorious child's tantrums, a mountaneous river's intemperance, a volcano's reckless carelessness and the dreamy eyes of a caged bird, imagination tries to fly unfettered. Hesitant as she takes those first steps, she sculpts those ambitious yet half baked earthen pots.