Thursday

I remember

न जाने क्यों, अचानक आज वो दिन याद आ गये जो अभी तक बीते हुये सावन में मिट्टी की सोंधी महक की तरह दिल के किसी कोने में, धूल कि कई परतों के नीचे दबे हुये थे।

मुझे याद हैं वो लम्हे जब वो आँखें धड़कने तेज़ कर देती थीं।
मुझे याद है कैसे उसके सामने आवाज़ मेरा साथ छोड़ देती थी।
मुझे याद हैं वो पल जब वो एक नज़र एक नयी उमंग जगा देती थी, और कैसे मैं उन पलों को बार बार ज़हन में उलटता पलटता रहता था।
वो कुछ बार जब दो शब्द निकले हों मेरे मुह से।
वो कुछ बार जब दो शब्द निकले हों उसके मुह से।
वो शर्म से उसका उंगलियाँ चटकाना और रह रहकर बिना वजह किसी और ओर देखना।
वो बेबाकी से नज़रों का मिलाना।
वो मीठा सा तसव्वुर और बेसब्र इंतज़ार।
वो किताबों के पन्नो में उस सूरत की ख्वाहिश।
वो आँखों के आगे धुधलके की परत िजसपे वो चेहरा खिंचता था।

वो दिन जब आखिरी बार उसे देखा।
वो शब्द जो ज़ुबँा पे आ न सके।
वो अरमान जो इन आँखों के साथ ही पथरा गये।
कितना कुछ कहना था, कितना कुछ सुनना था,
शायद दोनो ओर से पहल का इंतज़ार रह गया।

और आज इन हाथो में फिसलती जा रही धूल बची है।
वो धुधलाता हुआ चेहरा जिसको अब पहचानना मुश्किल हो चला है।
गये सावन की वो महक जो अब एक याद बनकर रह गयी है।
डूबते हुये दिन की वो आखिरी किरणें।

-Self

7 comments:

None said...

Subhaanallah! Bohot khoob!

Ankit said...

@aabeirah: is navazish ke liye shukriya!

kowsik said...

अब बस ऎक नाम् की जरूरत् हैं

चिंतन्?

Ankit said...

नाम भी था। चिंतन नहीं।

Anurup K.T said...

Kya kahu ? Itni choti umar mein itne gehre vichar ? Itna chintan kyun bhai? Abhi to tumhare "khelne khhodne ke din" hain :).
But really, writig freelancer ban jao, a la Carrie Fairchild (Sex & City):), picking that up from your other post.

Ankit said...

dhanyawaad lekin na gehere vichaar hain na vichaaron ke anurup bhasha... lekin sudhaar ki or prayaas jaari hai

Amit said...

Are Janab, isme kuch bi khas nahin hai. Maine ek tasweer banaya idhar udhar ke chitron ko kaat-chaat aur jod kar ke. Mere paanne pe jao aur uske 'source code' ko apne panne ke 'source code' ke saath tulna karo. Tumhe ye samjh me aayega ki maine sirf satahi parivartan kiya hai aur 'banner' ki jagah pe ek tasweer laga diya hai jo ki sthaai taur pe mere flickr ke panne pe rehta hai.

Agar isse sambandhit koi bhi aur nayi pareshani ho to bagair kisi hichkichahat ke shigrah suchit karne ki kripa karen! :D

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Like a particularly notorious child's tantrums, a mountaneous river's intemperance, a volcano's reckless carelessness and the dreamy eyes of a caged bird, imagination tries to fly unfettered. Hesitant as she takes those first steps, she sculpts those ambitious yet half baked earthen pots.