Tuesday

15 August

आज पूरे ६ साल बाद अपने पुराने स्कूल के स्वतंत्रता दिवस समारोह पे गया था। इतने दिनो बाद पहली बार यह अवसर आया था जब १५ अगस्त के दिन मैं लखनऊ में ही था। इसलिये मैने सोचा कि क्यों ना कुछ पुरानी यादें ताज़ा कर ली जायें। बड़ी मुशकिल से सुबह सात बजे उठकर, तय्यार होकर साढ़े सात बजे तक स्कूल पहुच गया।

दरवाज़े पर गार्ड ने एक अपरिचित चेहरा देखने पर कुछ सवाल पूछे और सन्तुष्ट होने पर गाड़ी अन्दर ले जाने दी। मुझे ध्यान है कि मेरे समय में गार्ड केवल नाम-मात्र होता था। उसको एक अमरूद दे दो तो खुद ओसामा-बिन-लादेन को अन्दर जाने की अनुमती दे देता। क्योंकि ध्वजारोहण में अभी भी आधा घण्टा बचा था तो मैने स्कूल का एक चक्कर लगाने का निर्णय लिया। जिस स्टाफ रूम में पहले जाने में पसीना आता था और अन्दर पहुचते ही अनायास ही हाथ पीछे और चाल सीधी हो जाती थी, वो थोड़ा निर्जीव सा लगा। ऐसा नहीं है कि अन्दर घुसते ही कुछ नज़रे मुझ पर नहीं गड़ गयी थीं लेकिन आज वो नज़रे मुझे टटोल नहीं रही थीं। आज उनमे वो सवाल नहीं था कि 'बेटा आज क्या घपला किया'। अगर उनमे कुछ था तो बस एक रुचिहीन कौतूहल। प्रिन्सिपल का कमरा वैसे का वैसा ही था और स्पोर्टस फील्ड में भी अधिक बदलाव नहीं था अलबत्ता उसके चारो ओर की दीवारें ऊँची हो गयी थी (हमारे क्लास के बच्चे उसको फाँद फाँद के मूवी देखने खूब जाते थे)। फिज़िक्स लैब वगैरह में L.C.D प्रोजेक्टर लग गये हैं लेकिन वही ३० साल पुरानी काँच की शीशियां जिनके लेबल आज से ६ साल पहले ही धुधले पड़ गये थे, वही पुराने चार्ट जिनको शायद ही कोई बच्चा पढ़ता हो कभी, वही आरामतलबी टीचर्स और खड़ूस लैब-असिस्टैंट।

आठ बजने में १० मिनट पर मौरनिंग असेम्बली की तय्यारियां शुरू हुईं तो मुझे वो दिन याद आ गये जब एक साल बीतने का अनुभव सिर्फ प्राईमरी के बच्चों से हर साल बढ़ती दूरी के रूप में होता था। बारहवी क्लास और हममे और उन नादानों में १० लाईनों का फासला! प्रिंसिपल के हाथों ध्वजारोहण हुआ और साथ में राष्ट्र गान। मैं ये कभी नहीं समझ पाया कि मेरे लिये राष्ट्र गान का महत्व पहले की बनिस्पत अब इतना ज़्यादा क्यों हो गया है। पहले जिसे मैं सिर्फ एक गीत और ज़िम्मेदारी समझता था, अब उसके मायने कहीं दिल से जुड़ गये हैं। और आज जब मौका स्वतंत्रता का था और सामने तिरंगा लहरा रहा था, मैं अपने हाथों पर खड़े हो रहे रोओं की सरसराहट साफ महसूस कर रहा था। हवाओं मे गूंजते 'ऐ मेरे वतन के लोगों' के स्वर मेरे कानों में प्रतिध्वनित हो हो कर दिल की धड़कनों को उकसा रहे थे। मुझे नहीं पता की और लोग भी ऐसा महसूस करते हैं कि नहीं लेकिन मैं साफ समझ रहा था कि उस दिन क्यों पण्डित नेहरू अपने आँसू नही रोक पाये थे।

कार्यक्रम के अन्त में प्रिन्सिपल साहब की एक उबाऊ स्पीच (कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलतीं!) और फिर मिष्ठान वितरण (२ लड्डू!)। वापस आते समय सोच रहा था कि उन दो लड्डूओं वाले समय के लिये आज मैं क्या नहीं दे सकता।

4 comments:

kowsik said...

बहुत् अच्छा लगा। गलत बोल रहें थे की बस् आखरी पैरा अच्छीं थी, मुझे तो पूरा ब्लोग् अच्छा लगा।

इत्ना लिखने मे हीं पसीना आ गया। या तो मुझे रोज् हिंदी मे लिखना चाहिये या फोनेटिक् कीबोर्ड का उपयोग करना चाहिये।

व्याकरण के बारे मे फिर कभी...

Ankit said...

कौशिक बाबू, एक गुल्ट होने पर भी तुम्हारी हिन्दी बहुत सराहनीय है। कम से कम उन लोगों से तो हज़ार गुना अच्छी है जो दिखावे के मारे अंग्रेजी भाषा को हिन्दी की तुलना (या तेलुगू की भी) में एक स्टेटस सिम्बल की तरह प्रयोग करते हैं और 'धोबी का कुत्ता न घर का ना घाट का' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। तुम मुझे अपनी हिन्दी की पकड़ से पहले भी चकित करते थे और आज भी!

None said...

@ankit: Itni khoobsurat blog maine bohot din baad padha hai aur aashcharya is baat ki hai ki maine khud aaphi ke blog ke baare mein kuch dinon pehle yehi baat kahi thi. Bohot khoob aur Jai Hind!

Ankit said...

@aabeirah: वो कहते हैं ना, 'खूबसूरती देखने वाले की नज़रों में होती है' :-)। वैसे बहुत शुक्रिया इस नवाज़िश के लिये।

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Like a particularly notorious child's tantrums, a mountaneous river's intemperance, a volcano's reckless carelessness and the dreamy eyes of a caged bird, imagination tries to fly unfettered. Hesitant as she takes those first steps, she sculpts those ambitious yet half baked earthen pots.