Thursday

Ruksat

आज जब जुदा होने की बात आई,

यह समां इतना रंगीन क्यों हो गया,
मेरा महबूब कुछ ज़्यादा हसीन क्यों हो गया है ।

पानी पे चाँद इतना खुश क्यों लग रहा है,
बीता हुआ वक़्त आज इतना क्यों सुलग रहा है ।

हवाओं की ठण्डी थपकी में आज यह नरमी कैसी ?
रात की कोमल रोशनी में भला यह गरमी कैसी?

और तुम्हारे बारे में क्या कहूं ?

"रंगो, छंदों में समायेगी, किस तरह से इतनी सुंदरता ?"

आज इन आँखों में चांद की शरारत चमक रही है
जैसे कि कितने सारे राज़ इनकी गहराईयों से बाहर आने को बेताब हों
कितने सारे सवाल, कितने सारे किस्से इसकी गर्त में दफ़्न
दिल को कितना ज़्यादा भेद रहीं हैं यह आज
जैसे ना चाहते हुये भी बीते हुये खुशगवांर वक्त की दुहाई दे रहीं हों

और इन होठों पे एक अनसुनी, अनकही दास्ताँ है
मुस्कुराहट इनकी कैद से रहरहकर बाहर झाँक रही है,
जैसे एक डगमगाते हुये, भरे हुये पैमाने से मै की दो बूंदे गिरने को बेताब हों

इन अधखुले होठों पर इतना निमंत्रण क्यों है ?
इस दिल में बेवजह ही इतना कंपन क्यों है ?
इन आँखों के तीर मेरे दिल के पार हो रहे
मेरे सारे हौसले तेरे सामने बेकार हो रहे !

लेकिन ना जानते हुये भी कितनी स्वार्थी हो गयी हो तुम
तुम्हारे इस रूप ने इस कातिलाना मंज़र के साथ मिलके मेरे मन में हज़ार सवाल पैदा कर दिये हैं
इस जुदाई की सार्थकता के बारे में सोचने लग गया हूं।
तुम्हारे बगैर इस सफर की असहनीयता के बारे में सोचने लगा हूं
मैं कितना कमज़ोर, कितना बेचारा और तुम कितनी निष्ठुर, कितनी दूर ।

"इस पार प्रिये, मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा

द्रग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है
फिर भी उस पार खड़ा कोई, हम सबको खींच बुलाता है
मैं आज चला तुम आओगी, कल, परसों, सब संगी साथी
दुनिया रोती धोती रहती, जिसको जाना है जाता है
मेरा तो होता मन डगमग, तट पर ही के हलकोरों से
जब मैं एकाकी पहुंचूंगा, मझधार न जाने क्या होगा
इस पार प्रिये, मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा"

1 comment:

Amit said...

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Like a particularly notorious child's tantrums, a mountaneous river's intemperance, a volcano's reckless carelessness and the dreamy eyes of a caged bird, imagination tries to fly unfettered. Hesitant as she takes those first steps, she sculpts those ambitious yet half baked earthen pots.